Wednesday, October 20, 2010

बारूद से ज्यादा


दुनिया की दुनियादारी से किसको विराग है
लोभी पतिंगों के लिए दोषी चिराग है
बारूद के एक ढेर पर बैठी है ये दुनिया
बारूद से ज्यादा हमारे दिल में आग है

Tuesday, October 12, 2010

तुम्ह समान नहि कोऊ


तुम्ह समान नहि कोऊ, मां दुर्गे तुम्ह समान नहिं कोऊ.....

ज्ञानिन्ह कर चि खींचत बल से
सींचत हो मन मोह के ब
से
सुमिरन करत हरहु भय सारा
चिन्तन करत करहु उपकारा

हर लेती दारिद, भय दोउ, तुम्ह समान नहि कोऊ.....

नारायणि मंगलमय रानी
सब मंगल तुम्ह करहु भवानी
सिद्ध करहु तुम्ह सब
पुरुषारथ
शरणागत वत्सल परमारथ

नहि सहाय तुम्ह बिनु अब कोउ, तुम्ह समान नहि कोऊ.....

शरणागत, पीड़ित की रक्षा
सबहि भान्ति तुम्ह करहु सुरक्षा
हरती पीड़ा त्रिनेत्र गौरी
सुनि पुकार आवहु तुम्ह दौरी

तुम्हहि प्रणाम करत सब कोऊ, तुम्ह समान नहि कोऊ....

सर्वेश्वरि मां सर्वस्वरूपा
दुर्गे देवि मां दिव्य स्वरूपा
रक्षा कर हे शक्ति स्वरूपा
दे दो मां निज भक्ति अनूपा

पुरुष, प्रकृति तुम्ह दोऊ, तुम्ह समान नहि कोऊ......

हो प्रसन्न सब रोग नसाए
कुपित भए सब काम नसाए
तुम्हरी शरण शरणदाता भए
सब बाधा हर शत्रु नसाए

आवत नहि विपत्ति तब कोऊ, तुम्ह समान नहि कोऊ.....

Thursday, September 30, 2010

वैकुंठ करेगा अभिनन्दन

चतुराई की दौड़-धूप में, भी भोले तुम बन जाओ।
विचलित गर्मी कर न सके, अब आग के शोले बन जाओ।

शीतलता की आस छोड़कर, सिर्फ दहकने की सोचो।
अस्तित्व नहीं मुरझाने में, इसलिए महकना ही सीखो।

संघर्ष तुम्हारा कांटों से, मुख उनका सहज तोड़ देना।
जिस ओर तुम्हारी मंजिल है, जीवन प्रवाह मोड़ देना।

धैर्ययुक्त हो करो सामना, कठिनाई हो भले महान।
कभी नहीं खोना है तुझको वीर-पुत्र अपनी मुस्कान।

परेशानियां आज उठ रहीं, सिर के भी ऊपर सोचो।
चिन्तन से भर लो उछाल, चिन्ता की बात नहीं सोचो।

दुर्भाग्य सांप तुझसे लिपटे, तुम सुन्दर वृक्ष बनो चन्दन।
कुंठा को छोड़ बढ़ो आगे, वैकुंठ करेगा अभिनन्दन।


जहां की संस्कृति अमिट अपार

उछलती धवल गंग की धार, बनाती हों यमुना गम्भीर।
सुन रहे हों नित नवल पुकार, भारती का भारत के धीर।

जहां पावन नदियों का मेल, पुण्य बरसाता संगम तीर।
पाप हरने का होता खेल, मिले पावन गंगा का नीर।

घाघरा, गंगा, यमुना आदि, जहां नदियों का मिले दुलार।
वही है अपना भारत देश, जहां की संस्कृति अमिट अपार।

मनुजता का देती सन्देश, सिखाती सबसे करना प्यार।
जहां पर आते हैं भगवान, सभी का करते हैं उद्धार।

समस्याओं को पीछे छोड़, लक्ष्य सामने रखो हे वीर।
कर्मयुत जीवन में तज आस, धन्य कर दो यह अधम शरीर।



चेतना शक्ति

भूतल पर क्यों भार बने हो, शक्ति-पुत्र निर्बल होकर।
सुप्त पड़ी है क्यों चेतनता, तन मन से दुर्बल होकर।

दीन बने हो क्यों सोचो, संघर्षयुक्त जीवन खोकर।
मन मलीन है क्यों सोचो, कब तक जागोगे सोकर।

दीप-ज्योति क्यों बुझी हुई है, तम-रिपु से लोहा लेकर।
अर्जित किया हुआ है क्या, जो जाओगे युग को देकर।

जब युवा अवस्था स्वीकारा, अपना अमूल्य बचपन देकर।
तो खुश रहकर जीना सीखो, अपना नश्वर जीवन देकर।

जनमानस तुझे पुकारेगा, नित नई अपेक्षाएं लेकर।
जीवन को जीना है कब तक, मन में ही इच्छाएं लेकर।

क्रियाशीलता की गति को, कब इच्छाशक्ति पुकारेगी।
चेतनाशक्ति जीवन उपवन को, आकर सहज संवारेगी।

बापू की संघर्ष यात्रा

संघर्ष यात्रा में मरना, जिसने स्वीकार किया था।
सत्य अहिंसा युक्त हृदय, दुनिया से प्यार किया था।
वह गांधी नाम हृदय में सबके, तब तक अमर रहेगा।
जब तक पृथ्वी के आंचल में जीवन सफर चलेगा।

अस्त्र विहीन साहसी सैनिक सेना को ललकारे।
विजयश्री ले लिए सहज ही भारत मां के प्यारे।
आजादी का वृक्ष उन्होंने अपने खून से सींचा।
यही हमें दायित्व दे दिए, कभी न हो सिर नीचा।

जीवन मुक्त हुए पर हममें, वे निवास करते हैं।
इसीलिए भीगी आंखों से सभी याद करते हैं।


जीवन के नाटक का मंचन

हे दीप तुम्हारा अभिनन्दन, हे ज्योति तुम्हारा अभिनन्दन।
जीवन जन-जन का दीप तुम्ही, हर गति का कारण ज्योति तुम्ही।
कर जोर सभी करते रहते, हे दीप-ज्योति तेरा वन्दन।
हे दीप तुम्हारा अभिनन्दन--------

जीवन का दीपक जलता है, व्यक्तित्व प्रकाश निकलता है।
ज्लाला बिखेरती तेज पुंज, अधबुझे दीप करते क्रन्दन।
हे दीप तुम्हारा अभिनन्दन--------

दीपक दुनिया में आते हैं, इतिहास छोड़कर जाते हैं।
दीपक की ज्योति तुम्हारा तो, युग-युग होता रहता चिन्तन।
हे दीप तुम्हारा अभिनन्दन--------

यह सृष्टि तुम्ही हर दृष्टि तुम्ही, यह जीवन मंच तुम्हारा है।
तेरे प्रकाश में होता है, जीवन के नाटक का मंचन।
हे दीप तुम्हारा अभिनन्दन--------


धूप और छांव

तुम्ही धूप हो तुम्ही छांव हो, जहां बसे घर वही गांव हो।
हमको प्यारा नेह तुम्हारा, तुम्ही हो नदिया तुम्ही किनारा।
पार मुझे ले जाने वाले, तुम्ही तो केवट तुम्ही नाव हो।
तुम्ही धूप हो तुम्ही छांव हो---------

तुम्ही मुझे दुनिया में लाए, मन में आशा-दीप जलाए।
आशा और निराशा तम में, तुम्ही प्रेरणा ज्योति जगाए।
जब जीवन में जगह न मिलती, ऐसे पल में तुम्ही ठांव हो।
तुम्ही धूप हो तुम्ही छांव हो---------

भटक रहा था इस दुनिया में, अपने मन में तुझे न खोजा।
इसीलिए तो भेदभाव का, चिन्तन आया उसी को सोचा।
पड़ता जो सम्पूर्ण जगत पर, हे प्रभु जी तुम ही प्रभाव हो।
तुम्ही धूप हो तुम्ही छांव हो---------

Tuesday, August 31, 2010

तदपि कहे बिनु रहा न कोई

भगवान के बारे में शास्त्रों में विस्तार से बताया गया है। यह भी कहा गया है कि उनके बारे में सम्पूर्णता से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। तभी तो समस्त शास्त्र, वेद और पुराण नेति-नेति कह कर भगवान की ओर संकेत भर करते हैं। नेति का मतलब ऐसा नहीं। फिर कैसा......बस यहीं पर मुशिकल आती है। तो फिर किया क्या जाए। क्या निराश हो जाएं कि जब भगवान के बारे में कुछ कहा ही नहीं जा सकता, तो क्यों दिमाग खपाएं, लेकिन शास्त्र कहते हैं कि जिससे जितना बन पड़े, भगवान के बारे में चिन्तन जरूर करे। यही चिन्तन भजन बन जाता है, जिसका बहुत बड़ा प्रभाव है। इसका प्रमाण श्रीरामचरित मानस के बालकाण्ड की एक चौपाई में मिलता है।
सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहे बिनु रहा न कोई।।
तहां वेद अस कारन राखा। भजन प्रभाउ भांति बहु भाषा ।।
अर्थात-यद्यपि प्रभु श्रीरामचन्द्रजीकी प्रभुता को सब अकथनीय ही जानते हैं तथापि कहे बिना कोई नहीं रहा। इसमें वेद ने ऐसा कारण बताया है कि भजन का प्रभाव बहुत तरह से कहा गया है। भगवान के गुणगानरूपी भजनका प्रभाव बहुत ही अनोखा है, उसका नाना प्रकार से शास्त्रों में वर्णन है। थोड़ा सा भी भगवान का भजन सहज ही भवसागर से तार देता है।
वास्तव में चार स्थितियां भजन की ओर ले जाती हैं। एक धन-दौलत की इच्छा, दूसरी संकट से छुटकारे की चाह, तीसरी जिज्ञासा शांत करने की चाह और चौथी ज्ञान पाने की इच्छा। किसी भी स्थिति में भजन लाभकारी होता है। इसी प्रकार भजन पर चर्चा जारी रहेगी। कुछ आप कहें और कुछ हम। भजन से आपको कितना लाभ हो सकता है, इसके भी बहुत प्रमाण हैं, लेकिन सबसे बड़ा प्रमाण है-भजन आओ करके देखें। बस आज इतना ही।
-श्रीकान्त सिंह

Friday, August 6, 2010

सहनशील है जनता

करते ही रहो जुल्म सहनशील है जनता
आप के कपड़े में लगी नील है जनता

महंगाई बढ़ा करके हमें क्या दिया तोफा
टूटी हमारी खाट भी खुद ले लिया सोफा
कामन न रहा वेल्थ हेल्थ खेल का बिगड़ा
जिसमें है फंसा देश वो है कर्ज का पिजड़ा
इसको न जड़ बनाओ ये गतिशील है जनता
करते ही रहो जुल्म सहनशील है जनता

फीका हुआ है आज अपनी चाय का प्याला
तुम छीनने लगे हो अब हर मुख का निवाला
तुम तो मनाओ दिवाली, अपना है दिवाला
सब कुछ तुम्हारी कैद में मस्जिद या शिवाला
इसको न सिखाओ, ये प्रगतिशील है जनता
करते ही रहो जुल्म सहनशील है जनता

सबूत खरीदो भले ताबूत बेच दो
इस देश को आधा या तुम साबूत बेच दो
ईमान बेच दो भले सम्मान बेच दो
आदमी तो क्या तुम भगवान बेच दो
पर आपके ताबूत की भी कील है जनता
करते ही रहो जुल्म सहनशील है जनता

हैं दागदार कर्म पर बेदाग बने हो
रोटी के हर टुकड़े के लिए काग बने हो
इस देश के संगीत का तुम राग बने हो
आस्तीन के तुम जाने कब से नाग बने हो
भूलो नहीं कि बहुत ज्वलनशील है जनता
करते ही रहो जुल्म सहनशील है जनता

Thursday, February 18, 2010

शाश्वत प्रकाश

किससे मिलन चाहता है मन, किसके लिए तरसता है मन।
किसके लिए सोचता है वह, जिसके बिना अधूरा जीवन।

किस पर वह प्यार लुटाता है, किस पर खुद भी लुट जाता है।
इस लुटने का आनन्द लिए, सपनों में किसे बुलाता है।

जीवन भी कैसा सपना है, कैसे कह दूं कि अपना है।
जो सबसे दुर्लभ दिखता है, हम उसके हैं वह अपना है।

साक्षात्कार कर लेने को, अपने मन का दृग उत्सुक है।
नयनों की प्यास बुझाने को शाश्वत प्रकाश भी इच्छुक है।

Monday, February 1, 2010

बना दे मानव ह्रदय उदार


मांगता है संस्कृति की भीख, दीन होकर सारा संसार।
याचना करता है बस एक, बना दे मानव ह्रदय उदार।।

जल रहा है हर टुकड़ा आज, बुझाने को दुर्लभ है नीर।
सभी हैं भौतिकता में लिप्त, कौन सुनता है किसकी पीर।।

तड़पती मानवता को देख, दया का कौन उठाए भाव।
कहाँ हैं कितने सच्चे संत, दिखा दें जो सबको सद्भाव।।

मनुज ने छोड़ा मानव धर्म, त्याग कर अमृत का पय विन्दु।
अशिक्षा की शिक्षा का कर्म, दे रहा तुच्छ वासना सिन्धु।।

छोड़ कर संत कुटी को लोग, चले हैं भौतिकता की ओर।
बन रही है वह निशि दिन मौत, पा रहे हैं सब दंड कठोर।।

बढ़ रही मन की तृष्णा आज, हृदय को समझ रहे हम यन्त्र।
तभी तो भटका विश्व समाज, भूल कर शिव का सक्षम मंत्र।।

रास्ता दिखलायेगा कौन, छोड़ आए हम गुरु का प्यार।
दिशाएं हैं अब तो सब मौन, हो सकेगा कैसे उद्धार।।

चले हैं मन की आँखें मूद, शून्य में ज्ञान खोजने लोग।
पहनकर सन्यासी का वस्त्र, भोगने को उद्यत हैं भोग।।

नहीं है योग नहीं है भोग, नहीं है सत का सहज विचार।
छोड़ सत्कर्म पालते रोग, चाहते हैं अनुचित अधिकार।।

स्वार्थ का घातक हुआ प्रकोप, हो गया दूषित मानव धर्म।
हुआ जब मानवता का लोप, कौन कर पाएगा सत्कर्म।।

आज कमजोरी है बस एक, बिक रहा है सबका व्यवहार।
लुटा ईमान धर्म को लोग, पहनते हैं हीरों का हार।।

मनों को अधिकृत करके लोभ, दिखाया माया रंग शरीर।
उसी ने किया हमें बर्बाद, छीन कर अनुपम अमृत क्षीर।।

हुआ मन इसी तरह परतंत्र, हो रहा है शोषित हर ओर।
तोड़ पाएगा बेडी कौन, लायेगा आजादी का भोर।।

मिटाने में मिटने में विश्व, खोजता है जीवन का चैन।
यही सारे कष्टों का बीज, इसी से दुनिया है बेचैन।।

सोच लो कैसी है यह भूल, भुला दी मन की सहज बहार।
छोड़ आधार भूत सत्कर्म, बनाने चले सुखद संसार।।

तोड़ कर सत्य ज्ञान की नींव, कह रहे हो खुद को भगवान।
जोड़ कर दीन ह्रदय का रक्त, नहीं बन पाओगे धनवान।।

लोभ में पड़ करके हर बार, खो रहे हो जीवन की शक्ति।
भावना में छल कपट अनेक, करोगे कैसे तुम सद्भक्ति।।

नहीं सत्संग दया का भाव, दान करते हो कितनी बार।
टिकेगा कैसे झूठ प्रभाव, नहीं है जब दिल में उपकार।।

Monday, January 25, 2010

स्वर एक


हे वीणावादिनि नित नवीन, अपना स्वर एक सुना देना।
वाणी हो अपनी देवि कहो, वंदना करूं कैसे तेरी।
सब नए छंद तेरा स्वरूप, तुझसे निकली कविता मेरी।
लेखनी करेगी अभिनन्दन, अपना सन्देश सुना देना।
हे वीणावादिनि---------------------------------
हे देवि तुम्हीं हो ज्ञानरूप, हे देवि तुम्हीं हो भक्तिरूप।
हर रूप तुम्हारा ही स्वरूप, हे देवि तुम्हीं हो शक्तिरूप।
जीवनीशक्ति मिलती जिससे, संगीत वही फैला देना।
हे वीणा वादिनि---------------------------------------
सम्पूर्ण सृजन हो सृष्टि तुम्ही, तुम ज्ञान राशि का अर्जन हो।
हो ज्ञान चक्षु की दृष्टि तुम्ही, तुम ही तो सम्यक दर्शन हो।

हे मुक्ति दायिनी तम पथ पर, अपनी नवज्योति जगा देना।
हे वीणा वादिनि -------------------------

जीवों में ज्ञान तुम्हारा है, मन में भगवान् तुम्हारा है।
जो तुम्हें समर्पित होता है, वह भी इंसान तुम्हारा है।
मैं करूं समर्पित क्या तुझको, सेवा में मुझे बुला लेना।
हे वीणा वादिनि ------------------------------

भूमिका


जारी---

चेतना शक्ति


जारी---

लक्ष्य-1


जारी---

लक्ष्य-2


जारी----

लक्ष्य-3


तरुण चेतना